Monday, May 13, 2019

एक शेर


Thursday, May 2, 2019

30 अप्रैल 2019 यानि 56वे जन्मदिवस पर...कुछ यादें...


      सालगिरह का गोला

जहाँ तक मुझे याद है, यह उम्र 4-5 साल की रही होगी । जब हर साल की तरह 30 अप्रैल के रोज़, बिजनौर से तकरीबन 9 किलोमीटर  दूर, कस्बा झालू के मोहल्ला कानूनगोयान में मास्टर चंडी प्रसाद भारद्वाज के घर एक उत्सव का माहौल होता था । हो भी क्यों नहीं, मास्टर साहब के इकलौते बेटे का जन्मदिन जो होता था 30 अप्रैल को!!
आंगन से लेकर बाहर चबूतरे तक गोबर से लिपवाना, साफ-सफाई करवाना और नाइन ताई सहित, पंडित ताऊ जी को याद दिलाना.... यह सब काम दादी के जिम्मे था । और इतना ही नहीं, पूरे घर की एकमात्र कंट्रोलर दादी ही थी। मजाल है कि बिना दादी के के हुकुम के मां कोई जरा-सा भी अपनी मर्ज़ी से काम कर दे। पिताजी तो मुरादाबाद के किसी सरकारी स्कूल में प्रधानाध्यापक थे। हां, इतना मुझे जरूर माँ ने बताया था कि जब मेरा जन्म हुआ, तब वे मूंढापांडे में पोस्टेड थे । फुरसतभरी दोपहरी में अम्मा अक्सर उन मीठे दिनों की चर्चा विस्तार से किया करती थी, जब दादी के विरोध के बावजूद, माँ 5-6 महीने मूंढापांडे में भुस से आधी भरी किराए की कोठरी में पिताजी के संग रही। कुल मिलाकर वे ही पाँच-छःमहीने माँ के जीवन के यादगार दिन थे, बाक़ी जीवन तो दादी के साथ, या फिर अकेले ही गुज़ारा माँ ने ।

ख़ैर, सच कहूं तो मुझे भी बहुत इंतजार रहता था 30 अप्रैल का । उसके कई कारण थे,  मेरा जन्मदिन तो था ही। हर जन्मदिन पर मुझे बिल्कुल नए कपड़े पहनने को मिलते थे।  साथ ही, छुट्टी लेकर पिताजी मेरे जन्मदिन पर जरूर आते थे।  उस दिन घर में पकवान बनते थे। सत्यनारायण भगवान की पूजा होती थी और शाम को नाइन ताई के नेतृत्व में मोहल्ले की सभी ताई-चाची और दीदियाँ ढोलक और मजीरे के साथ जन्मोत्सव के लोकगीत गाती थी। तब वाक़ई,  आंगन में इधर से उधर तक गर्व से चहलकदमी करते हुए, खुद को एक राज कुमार  जैसा अनुभव होता था। सभी का आशीष । खासतौर पर तिलक । सबसे पहला तिलक दादी करती थी। उसके बाद ताऊ जी ( जो हमारे पुरोहित भी थे वही घर में पूजा हवन आदि सारे कर्म संपन्न कराते थे ), फिर पिताजी, उसके बाद अम्मा.... और कई बार..मोहल्ले की कोई ताई या मिथलेश दीदी भी तिलक और उपहार देतीं थीं। मुझे याद है, मिथिलेश दीदी ने ही मुझे मजबूत गत्ते की रंगीन वर्णमाला की किताब दी थी, जिसे अपनी किशोरावस्था तक कई बार सिलकर भी मैंने सहेज कर रखा। मेरा "मनोज" नाम भी 'हकली ताई' की बिटिया, हेम दीदी की ही देन है। उस जमाने में ऐसे नाम कहाँ रखता था कोई ? मेरा भी जन्म कुंडली के मुताबिक नाम- दीनानाथ सुझाया गया था। "पाधा" बाबा जी ने तब ऑप्शन में  दीनदयाल या दीपक नाम रखने की सलाह भी दी थी। लेकिन चूँकि जन्म के बाद ही मेरा 'कन-छेदन' हुआ था, इसलिए घर का पुकारने वाला नाम मेरा "कन्नू" ही प्रचलित था। इतना ही नहीं, माँ को भी सब "कन्नू की अम्मा" और दादी को "कन्नू की दादी" से ही ज्यादा जानते-पहचानते थे। हालांकि, पिताजी और माँ मुझे प्यार से "मुन्ना" कहते थे। मुन्ना नाम माँ की साँसों में किस क़दर रचा-बसा था, इसका अंदाज़ा इससे ही लगाया जा सकता है,कि जीवन के अंतिम दिनों में भी माँ के मुँह से "मुन्ना" नाम ही निकलता था।

बहरहाल, तिलक करने के साथ दोनों हाथों से सर पर आशीष का हाथ फिराना मुझे 'इरिटेट' करता था, सरसों का तेल खोंस कर सँवारे गए सिर के सारे बाल बेतरतीब हो जाते थे, लेकिन अगले ही पल ये सारी इरिटेशन रफूचक्कर हो जाती, जब सामने थाल में रखी मिठाई,पेड़ा या बर्फी अपने हाथों से खिलाकर,  उपहार में दो या पांच रुपये मेरी हथेली में आते। मुझे याद आता है,  बचपन में हर साल जन्मदिन पर दस, बारह या हद से हद पन्द्रह  रूपए की खासी रकम तो भेंट में मुझे मिल ही जाती थी । यह अलग बात है कि इतनी बड़ी रकम मेरे जैसा छोटा राजकुमार अपने किस खजाने में रखता ? लिहाजा,  यह सब रक़म अम्मा की अलमारी में रखी,  नालुये से बुनी हुई कतनी के भीतर, अफगान स्नो के खाली डिब्बे में सुरक्षित रख दी जाती थी। लेकिन मुझे इससे कोई शिकायत नहीं थी । मुझे तो चाहिए थे चंद पैसे, जिनसे मंगला हलवाई की दुकान पर पेड़ा खा सकूं या तोते चाचा के ठेले पर बर्फ़ के रंगीन गोले चूस सकूँ। और सच्ची,, उस उम्र में इतने पैसे शान से ख़र्च करने की बरक़त तो हमेशा बनी ही रही।
30 अप्रैल को सुबह ही अच्छे से नहला-धुला कर, सिर पर सरसों का तेल चुपड़ने के अलावा तेल सने हाथों से चेहरा और हाथ-पाँव चमका देना माँ की अतिरिक्त ख़ूबी थी। मैं उस दिन हमेशा नहाने की जल्दी करता था ताकि नए कपड़े पहन कर इठला सकूँ। लेकिन दादी पहले कोरे कपड़े आँगन के पेड़ों को पहनाती थी, फिर वहाँ से उतार कर मुझे पहिनने को मिलते थे। दादी कहती थी, बड़ी दुआओं से पाया है तुझे। तभी तो शुरू के 3 साल तुझे घर के कपड़े भी न पहिनाए। सच में, मेरे लिए कपड़े काशी की बहू( घर की मेहतरानी) ही लेकर आती थी। दादी बताती थी, मेरी बड़ी बहिन-बबिता की मौत छः महीने की उम्र में ही हो गई थी। उसके 3 साल बाद बड़ी मान-मनौती के फलस्वरूप भगवान ने मुझे माँ की गोद में दिया था । इसलिए ये टोटके जरूरी हैं।
ख़ैर, तैयार हो जाने के बाद अगली कड़ी होती थी तुलादान की। नीम की बीच वाली डाल पर बाज़ार वाली ताई का लड़का,  रमेश की चक्की से लाई बड़ी-सी तराज़ू लटका देता था। तराज़ू के एक पलड़े पर मुझे बैठाया जाता और मेरे वज़न के बराबर सात तरह का अनाज एवं सप्त धातु मिलाकर चढ़ाए जाते। कांटा बराबर होने पर दादी मुझे अपनी गोद मे उठा लेती और पलड़े पर रखी सभी सामग्री चवन्नी की दक्षिणा के साथ , दरवाज़े पर पहले से इंतज़ार कर रहे भिक्षुक को दे दी जाती। वो उपहार में तो
मुझे कुछ नहीं देता, बस अपने दोनों हाथों से मेरे सिर के सँवरे हुए बाल जरूर बिगाड़ देता । लेकिन फिर भी यह सब मुझे बहुत अच्छा लगता था। सच में,  जब मैं 10 साल का हो गया ,  तब तक मेरे वजन के बराबर तुलादान पिताजी हर साल कराते रहे । दस सालों तक राजसी ठाठ के बाद माँ-बदौलत के खेलने के लिए छोटी बहिन का जन्म हुआ-मंजू। फिर एक भाई-मनीष(जो अब इस दुनिया मे नहीं है),एक और बहिन-मृदुला । उसके बाद के न जाने कितने वर्षों तक तुलादान तो नहीं हुआ,  लेकिन हाँ,  दान की यह रस्म बराबर जारी रही, जब तक कि पिता जी जीवित रहे। 1995 में पिताजी के जाने के बाद जन्मदिन तो जैसे भी करके मनाया ही मैंने,, लेकिन वो राजसी भाव, वो दान, वो नए कपड़े, वो हवाओं में घुला प्यार मनुहार का अहसास फिर कभी मयस्सर नहीं हुआ।
अरे हाँ, एक गहरे राज़ की तो बताना ही भूल गया। मैं जिसे तब से जन्मदिन, जन्मदिन कहे जा रहा हूं। इस पूरे समारोह को हमेशा वर्षगांठ या सालगिरह के नाम से ही सब लोग जानते रहे। वर्षगांठ क्यों या सालगिरह क्यों ? इसके पीछे भी एक छोटी-सी कहानी है।  तुलादान हो जाने के बाद, जब ताऊ जी सत्यनारायण की पूजा करते थे और हवन कराते थे, उसी समय माँ क्रोशिया के बने हुए जालीदार एक रूमाल में बंधा  लाल रंग की डोरी का गोला पूजा में रख देती थी। पूजा संपन्न होने के बाद, ताऊजी उस रुमाल को खोलते । लाल रंग की उस डोरी से पांव के अंगूठे से लेकर सिर की शिखा तक मेरी लंबाई की नाप लेते और डोरी में उस जगह पर एक गांठ लगा देते। इतना ही नहीं, उस लंबाई से पिछले साल लगी हुई गांठ को नाप कर यह अंदाज़ा लगाया जाता कि इस 1 साल में मेरी लंबाई कितनी बढ़ी है । बाद में एक बार, उन्हीं गाँठों को गिन कर मैंने अपनी उम्र का सही अंदाजा भी लगाया था । गोले में  जितनी गांठे उतने ही साल का मेरा मुन्ना !! 

बाद के सालों में न जाने कब मेरी लम्बाई बढ़नी बन्द हो गई तो साथ-साथ, उस वर्षगाँठ के डोरे में गाँठ लगनी भी बन्द हो गई। माँ के रहते, उनकी अलमारी में वह लाल रंग का गोला,उसी जालीदार रुमाल में बंधा रखा ही रहा। माँ के जाने के बाद, जैसे कई पीढ़ियों पुराना  वह घर बिखर गया, उसी आंधी में सालगिरह का वह गोला भी न  जाने कहां चला गया। हर साल 30 अप्रैल को एक बार तो ज़रूर ढूंढता हूं सालगिरह के उस लाल गोले को.....ताकि एक बार फिर से गिन सकूँ उन तमाम गाँठों को और लगा सकूं अपनी उम्र का सही-सही अंदाजा ....!!!


- डॉ0मनोज अबोध

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एक दोहा..


Saturday, January 5, 2019

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Thursday, January 3, 2019