पर दिल से लाचार बहुत हैं
एक वक्त खाकर सोते हैं
ऐसे भी परिवार बहुत हैं
मैना है अब भी पिंजरे में
कहने को अधिकार बहुत हैं
उससे लड़ मरने का मन है
पर, उसके उपकार बहुत हैं
हरिश्चन्द्र बिकने आते हैं
ऐसे भी बाज़ार बहुत हैं
पूरा दिन दफतर में बीता
ऐसे भी इतवार बहुत हैं
वो क्या जानें टूटे दिल में
यादों के अम्बार बहुत हैं
जिनका सच है केवल पैसा
ऐसे भी अख़बार बहुत हैं
हर शय में उसका ही चेहरा
चिन्तन के विस्तार बहुत हैं
4 comments:
really nice one...
बहुत उम्दा..
ये ग़ज़ल बहुत ही खूबसूरत लगी.
आप सभी का बहुत बहुत आभार ।।।
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