एक ताज़ा ग़ज़ल आपकी अदालत में========
हर क़दम अपने में सिमट कर भी
जी रहा हूँ सभी से कट कर भी
साथ चलने की बात करता था
उसने देखा नहीं पलट कर भी
उनके साँचे में ढल सके ही नहीं
हमने देखा बहुत सिमट कर भी
वो रुका ही नहीं, न रुकना था
कितना रोया उसे लिपट कर भी
सिर्फ़ तनहाई हाथ आई है
देखा तक़दीर को उलट कर भी
उलझनें सब सुलझ भी सकती थीं
सोचते तो ज़रा-सा हट कर भी
मुझको बस, तू दिखाई देता है
ख़्वाब क्या ख़्वाब से उचट कर भी
---------------मनोज अबोध
हर क़दम अपने में सिमट कर भी
जी रहा हूँ सभी से कट कर भी
साथ चलने की बात करता था
उसने देखा नहीं पलट कर भी
उनके साँचे में ढल सके ही नहीं
हमने देखा बहुत सिमट कर भी
वो रुका ही नहीं, न रुकना था
कितना रोया उसे लिपट कर भी
सिर्फ़ तनहाई हाथ आई है
देखा तक़दीर को उलट कर भी
उलझनें सब सुलझ भी सकती थीं
सोचते तो ज़रा-सा हट कर भी
मुझको बस, तू दिखाई देता है
ख़्वाब क्या ख़्वाब से उचट कर भी
---------------मनोज अबोध
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