Saturday, October 14, 2017

एक दोहा और

एक दोहा और भी देख लें मान्यवर

तय था आओगे नहीं, फिर भी बारम्बार ।
हर आहत पर चौंक कर, देखा मैंने द्वार ।।

---मनोज अबोध

एक दोहा

एक दोहा यादों भरा....

मादक नयनों से तिरे, चख ली थी इकबार ।
उम्र हुई पर आज तक, उतरा नहीं ख़ुमार ।।

-----मनोज अबोध

Friday, September 29, 2017

एक ताज़ा ग़ज़ल

एक ताज़ा ग़ज़ल आपकी अदालत में========

हर क़दम अपने  में सिमट कर भी
जी रहा  हूँ  सभी  से  कट कर भी

साथ  चलने की  बात करता  था
उसने  देखा  नहीं  पलट  कर भी

उनके  साँचे में  ढल सके ही नहीं
 हमने  देखा बहुत सिमट कर भी

वो रुका  ही  नहीं, न  रुकना था
कितना रोया उसे लिपट कर भी

सिर्फ़   तनहाई   हाथ  आई   है
देखा तक़दीर को उलट कर भी

उलझनें सब सुलझ भी सकती थीं
सोचते तो  ज़रा-सा  हट कर भी

मुझको  बस, तू  दिखाई देता है
ख़्वाब क्या ख़्वाब से उचट कर भी

---------------मनोज अबोध

Monday, July 31, 2017

एक मुक्तक

एक मुक्तक ....

चार पल की मुलाक़ात को ।
आपकी हर कही बात को ।
श्वांस से श्वांस का वो मिलन
याद करता हूँ उस रात को ।

Friday, July 7, 2017

एक दोहा

एक दोहा आप की नज़्र है---

उन लोगों की बात पर, कैसे करता गौर ।
भीतर से कुछ और जो, बाहर से कुछ और ।।
                   --मनोज अबोध

आज का दोहा


आज के दोहे के साथ आपकी अदालत में----/

करते हैं जो स्वार्थ से, सम्बन्धों की माप ।
पछतावा होगा उन्हें, इक दिन अपनेआप।।

                   --मनोज अबोध

Tuesday, July 4, 2017

एक ताज़ा दोहे के साथ...


मेरे भीतर आ  बसा, जब  से  तेरा रूप ।

पोर-पोर में खिल गई, मीठी-मीठी धूप ।।

                              *मनोज अबोध

Friday, March 17, 2017

न जाने कैसे

अच्छे से याद है मुझे
कमरे में घुसते ही
सटाक से कर लिया था दरवाज़ा बन्द
चढ़ा दी थी चिटकनी
लगा दी थी कुण्डी
कि/ चाह कर भी कोई
भीतर न आ सके ।
मगर न जाने कैसे...कब
मेरे साथ-साथ
बिस्तर तक चले आये
कई दुःख, कई चिन्ताएं
क्रोध के रेतीले झोंके
ईगो, पश्चाताप और यादें
उफ़...
एक मुलायम बिस्तर में
इतने कठोर सहवासी
वो भी इतने सारे...?
एकाएक आँखों में उग आई नागफ़नी
और/ करवटें बदलता रहा
मैं रातभर ..।।।।

रिजेक्शन

दिलकश स्टाइल में
बाँध-गूँथ कर
महकते फूलों के
गुलदस्ते बेचते
माली की टोकरी में
बचे पड़े फूलों से पूछो-
क्या होता है
"रिजेक्शन" का दर्द !

बड़े से शो-रूम में
फोकस लाइटों के बीच
'न्यू अराइवल' के डिस्पले तले
करीने से हैंगर में इठलाती
खूबसूरत ड्रेस को
बड़े चाव और पसंद से
उठा लेने के बाद
प्राइज टैग
साइज़ की फिटिंग
या फिर
और बेहतरीन की चाहत में
गूचड़-माचड़ कर
स्टैंड या टोकरी में
वापस फेंक दिए जाने पर
उस ड्रेस से पूछना-
क्या होता है
"रिजेक्शन" का दर्द !

रूप, गुण, पसंद और
ट्रेण्ड के बावजूद
नकारे जाने की पीड़ा
नकारने वाला शायद ही
कभी समझ पाता हो ।।।

Sunday, March 12, 2017

होली

होली शुभ हो आपको, खुशियाँ मिलें अपार ।
तन मन पर छायी रहे, रंगों- भरी  बहार ।।
रंगों  भरी  बहार ,  हँसो- नाचो -लहराओ
"प्रिय" के गालों पर, अबीर गुलाल लगाओ
यदि हों "वो" नाराज़, बना लो  सूरत भोली
हाथ जोड़ कर कहो, आपको हो शुभ होली!
         

Friday, January 27, 2017

अच्छा तो लगता है

अच्छा तो लगता है
जब धीरे से कोई कानों में
कह जाता है
प्यार के दो रसीले शब्द !
देर तक गूँजती रहती है उनकी प्रतिध्वनि
मन की दीवारों से टकरा कर !
गुंजायमान होता रहता है कोई चेहरा
मासूम खिलखिलाहट के साथ
मूक आमंत्रण-भरी आँखों का अबोलापन
एकाएक रोक देता है मेरे कदमों को
और, मैं
फिर से सुनने का प्रयास करने लगता हूँ
कानों में कहे गए
उन दो शब्दों को !!!
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मनोज अबोध

Tuesday, January 24, 2017

आज एक ग़ज़ल

सकल श्रम आज निष्फल हो रहा है
ग़ज़ल के नाम पर छल हो रहा है

उधर  वो विष  उगलते जा रहे हैं
इधर मन है  कि सन्दल हो रहा है

ज़रा-सी बात पर सर काट डाला
नगर अभिशप्त जंगल हो रहा है

लगाकर लाइनें कुछ फेसबुक पर
नया शायर मुकम्मल हो रहा है

कभी जो सोचकर दिल काँपता था
वही सब आज हर पल हो रहा है

करूँ कैसे नियन्त्रित इस हृदय को
तुम्हें देखा  तो  चंचल हो रहा है ।

वो  जितनी  देर करते जा रहे हैं
ये मन उतना ही बेकल हो रहा है

मुझे जेअन यू में दाख़िल कराओ
मेरा आदर्श अफ़ज़ल हो रहा है
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:::मनोज अबोध

Monday, January 23, 2017

छोटी-बड़ी खुशी

अलग़-अलग़ होता है
सभी का पैमाना
जिनसे नापते हैं लोग
अपनी खुशियां !
कुछ हैं जो ख़ुश हो जाते हैं
छोटी-छोटी बातों में
उन्हें खुश रखने में
ज़्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती
ऐसे लोगों के लिए
बहुत मायने रखती है छोटी-सी ख़ुशी भी !
साधारण सी बातों में ख़ुशी ढूंढ़ कर
खुश रहनेवाले इस दर्जे के लोगों के पास
इतनी खुशियां इकट्ठा हो जाती हैं कि
वे अपने आस-पास वालों को भी
गाहे-बगाहे बाँटते रहते हैं खुशियाँ !
अब मज़ा तो ये है कि
हर रोज़ हर पल
खुशियां बाँटने के बावजूद भी
कम नहीं होतीं इनकी खुशियाँ
बल्कि, इज़ाफ़ा ही होता रहता है कुछ-न-कुछ !
दूसरी तरफ़, ऐसे भी लोग हैं
जिनकी ख़ुशी का ग्राफ होता है
बहुत कॉम्प्लिकेटेड !
उन्हें ख़ुद मालूम नहीं होता कई बार
कि/ वे कैसे खुश हो सकते हैं ?
ऐसे लोगों को खुश करना
बहुदा होता है इतना मुश्किल
जैसे- पानी पर पानी लिखना !
ऐसा नहीं कि ये लोग
खुश होना नहीं चाहते
बस, इनकी ख़ुशियों का साइज़ जरा बड़ा होता है
अपनी बड़ी खुशियों को दिखाने के लिए
अक्सर रचते रहते हैं ये
बड़े-बड़े प्रपंच
बाकायदा बुलाते हैं तमाम नीयर-डीयर्स को
गवाही के लिए !
ख़र्च करते हैं बड़ी-बड़ी रक़म
दिखाने का सफ़ल-असफ़ल प्रयास करते हैं
बाक़ी को
कि/ तुम्हारी खुशियाँ
कितनी बोदी हैं, कितनी मलेच्छ
इनकी विशालकाय ख़ुशियों के सामने !!!
लेकिन, अगले ही पल
छूमंतर हो जाती हैं इनकी खुशियाँ
आयोजन  का हिसाब-किताब करते वक़्त !
दुःखी हो जाते हैं
पर, मुस्कुराते हैं झूठमूठ सबके सामने !
वहीं, मुझ जैसे बहुत सारे लोग
धीरे से ढूंढ़ लेते हैं अपने स्तर की छोटी खुशियाँ
इन्ही बड़ी ख़ुशियों के शामियाने में
और चुपचाप खड़े हो जाते हैं एक कोने में
भीतर ही भीतर मुस्कुराते हुए
बगल में दबाये अपने हिस्से की ख़ुशी।
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अपनी खुशी

हर किसी की होती है अपनी खुशी
बिलकुल निजी
उसकी अपनी खुशी।
ज़रूरी नहीं
कि आप जिन चीजों से खुश हो जाते हों
सामने वाला भी उससे खुश हो
क्योंकि / अलग - अलग होती है
सबके लिए
ख़ुशी की परिभाषा ।
हाँ, अलग होते हुए भी
अगर कोई शामिल होता है आपकी ख़ुशी में
या, समझता है आपकी ख़ुशी को
अपनी ख़ुशी
तो ये बड़ी बात है !
निःसन्देह आप भाग्यशाली हैं
लेकिन, ये हर बार या हमेशा नहीं हो सकता
इसलिए  मत लेना इसे कभी
टेकेन एज़ ग्रांटेड
वरना, ये भी हो सकता है कि
आपकी रही-सही ख़ुशी भी मुरझा जाए !
ये तो आप बख़ूबी जानते ही हैं
ख़ुशी हो या फूल
मुरझा जाए तो फिर से खिलाने में
करनी पड़ती है कड़ी मशक्कत !
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Thursday, January 19, 2017

एक कविता

एक अदृश्य बोझ है
जो ज़्यादातर लमहों में
रहता है मेरे सिर पर सवार !
बहुत चाहता हूँ कि
उतार फेंकूँ सिर से
अनवरत समस्याओं का ये बोझा
प्रयास करता रहता हूँ
और कुछ नहीं तो, कुछ वज़न ही कम हो
कुछ तो हल्की हो खोपड़ी !
एक पल को लगता है कि
रंग ला रही है मेहनत
शायद, अब, इतने कुछ के बाद
कम हो जायेगा ये बोझा
झटक सकूँगा बरसों से अकड़ी गर्दन को
घुमा सकूँगा खोपड़ी दाँये बाँये
देख सकूँगा स्फारित नेत्रों से
आसपास के परिदृश्य को
लेकिन अगले ही पल
छूमंतर हो जाता है हल्के होने का यह अहसास
कोई दूसरी समस्या धीरे से सरक कर पैठ जाती है
सिर पर मौजूद पोटली में
और फ़िर, ज्यों का त्यों,
या कई बार तो पहले से भी अधिक बढ़ जाता है ये बोझ
लगता है अक्सर
अब नहीं सम्हाल पाउँगा इतना वज़न
गिर जाऊँगा लड़खड़ा कर
लेकिन अगले ही पल
पूरी ऊर्जा के साथ
करता हूँ एक नई कोशिश
खुद को खड़े रखने की
मुस्कुराता हूँ बे-वजह
उचकाता हूँ बोझ से दबी
अकड़ी हुई गर्दन को
संतुलित करने का विफल-सा प्रयास करता हूँ
कंपकंपाती हुई टांगों को
जानी-अनजानी भीड़ के बीच
शायद , डरता हूँ बिखरने से
या,  डरता हूँ गिरने से
या फिर, नहीं देना चाहता कोई मौका
मुझपर ठट्ठा मारने को तैयार खड़े मेरे अपनों को !!
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Saturday, January 14, 2017

अभिसार

चाहता हूँ
बनो तुम फिर से
अभिसारिका !
त्रियोदशी के चाँद की मद्धम रौशनी में
नमूदार होता
तुम्हारा रसवंती चेहरा....
महुए की ताज़ा शराब-सा गंधाता
तुम्हारा जिस्म.....
रोक ले मेरे बौराये क़दमो को ।
नर्मदा के रेत में घुटनों के बल बैठकर
संवारू तुम्हारी घुँघराली अलकों को..
गूँथ दूँ
वनपुष्पों की एक माला !
जिसकी गंध घुलमिल जाए
तुम्हारे लरज़ते अधरों से छलकती
शबनमी बूंदों से ।
भर लूँ चुल्लू में
इस चाँद के निर्झर को
और / अमृत्व की चाहत में
सुड़प कर के पी जाऊं !
या/ रेत की ओसभीगी चादर पर अधलेटी
तुम्हारी देहयष्टि का समीकरण
हल करूँ त्रिकोणमिति के सिद्धांत से !
देह की पखावज पर
अंगुलयों के पोरों से
छेडूं
राग यमन , जो तब्दील हो जाये
रात्रि के चरम पर
रागेश्वरी की तान में ।
और, साष्टांग हो जाऊं मैं
बिखरे रेत-कणों के वक्ष पर।।
टूटन भरे  जिस्मों को
जगाये जब भोर की पहली किरण....
तुम देखो मेरी तरफ़
अजनबी निगाहों से !
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माज़ा देव

कोल्हापुर से पुणे जाते हुए
कुछ देर देखता रहा
तेजी से पीछे छूटते शहर को
फिर,
अनायास मेरी नज़रें पड़ीं
कार के विंडस्क्रीन से झूलते
मिनिएचर पर ।
कुछ नई बात तो नहीं, हर कोई-
अपनी पसंद,
अपनी आस्था के मुताबिक
लटका ही लेता है
कोई न कोई मिनिएचर !
हवा में उड़ते हनुमान हों
साईं बाबा, गणपति बप्पा, तिरुपति महाराज
या फिर, पर्सनलाइज कोई देवी देवता।
मगर, इस कार के मास्टर मिरर से लटका था-
एक जोड़ी कोल्हापुरी चप्पलों का मिनिएचर ।
एक ढाबे पर चाय के लिए रुके
तो मैंने पूछ ही लिया-
वो मुस्कुराया।
ज़रा गर्व से बोला-
साहेब, इसी चमड़े से भरता है मेरे परिवार का पेट
इन्ही कोल्हापुरी चप्पलों से चलती है हमारी रोज़ी-रोटी
माज़ा देव हच आहे !!
(हमारा तो भगवान यही है)
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कविता 3

वे कौन लोग थे
जो अलसुबह जगा कर मुझे
पूछ रहे थे-कि
मेरा तुम्हारा रिश्ता क्या है ?
मैं बताना चाहता था
वही रिश्ता है- जो
नींद का होता है शरीर से !
रिश्तों की पड़ताल करने वालों
अपने शरीर की ज़रा सुध लो
क्यों उचट जाती है तुम्हारी नींद
क्यों तुम्हे रात-रात नींद नहीं आती है !
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एक कविता और......

कितना सही हूँ मैं ?
मैं नहीं जानता !
कितना ग़लत हूँ मैं 
यह मालूम है मुझे !
एक बड़ा झुण्ड 
जो एक्टिव है हर पल 
मेरे चारों तऱफ
भिन्न भिन्न कोटियों वाले
ग़लती मापक यंत्रों के साथ !
इससे पहले कि
अलग स्टैंडर्ड अलग स्केल के 
त्रुटि मापक यंत्रों के 
उल्टे सीधे परिणाम का हवाला देकर
वे दबा दें मेरी हैसियत को
गलतियों के कमरतोड़ बोझ तले
ज़रूरी था
कि सजग रहूँ मैं ख़ुद
अपनी ग़लतियों के प्रति ! 
शायद, इसीलिए जानता हूँ मैं
अपनेआप को
जब जब करता हूँ
गलतियां !!!
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एक कविता

हाँ, मुझे पसंद है
यायावरी
घूमना-फिरना, सैर-सपाटा
पर्यटन
टोहना अनजान रास्तों को
महसूसना भिन्न संस्कृतियों को
देखना /अलग अलग़ जीवन शैलियों में
रचे बसे लोगों को !
गले मिलना/ प्रकृति के विविध रूपों से
बेहद पसंद है मुझे !!!
लेकिन ???
बेतरतीब, बेमानी,दिखावटी
रिश्तों को ढोते झुण्ड के साथ तो बिलकुल भी नहीं।
बौद्धिक तार्किकता
वैचारिक समरसता
और / आयनिक सकारात्मकता के साथ
भले ही, सिर्फ़ एक साथी हो
सफ़र का पल पल
अक्षुण्ण अनुभव में बदल जाता है
फिर थकते नहीं हैं क़दम
बढ़ते जाते हैं एक नई ऊर्जा के साथ
खंगालने को एक नई दुनिया
एक नए अहसास के साथ।
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