Tuesday, January 24, 2017

आज एक ग़ज़ल

सकल श्रम आज निष्फल हो रहा है
ग़ज़ल के नाम पर छल हो रहा है

उधर  वो विष  उगलते जा रहे हैं
इधर मन है  कि सन्दल हो रहा है

ज़रा-सी बात पर सर काट डाला
नगर अभिशप्त जंगल हो रहा है

लगाकर लाइनें कुछ फेसबुक पर
नया शायर मुकम्मल हो रहा है

कभी जो सोचकर दिल काँपता था
वही सब आज हर पल हो रहा है

करूँ कैसे नियन्त्रित इस हृदय को
तुम्हें देखा  तो  चंचल हो रहा है ।

वो  जितनी  देर करते जा रहे हैं
ये मन उतना ही बेकल हो रहा है

मुझे जेअन यू में दाख़िल कराओ
मेरा आदर्श अफ़ज़ल हो रहा है
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:::मनोज अबोध

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