Thursday, October 21, 2010

शीत न हो संबंध ये ..........

शीत न हों ये हाथ अब
शीत न हों संबंध
शीत युद्ध से मुक्‍त हों
मित्रों के अनुबन्‍ध ।


मन्‍द न पड़ जाए कहीं
संबंधों की आंच
सुख की दुख की चिटिठयां
खुले हृदय से बांच ।


मौसम की सौगात हैं
पाला शीत कुहास
पर उसको ये व्‍यर्थ हैं
जिसको तेरी आस ।

झूठे का मुंह काला नहीं देखा...........

कहावत है, जुबां पर सत्‍य की ताला नहीं देखा
मगर हर शख्‍स तो सच बोलने वाला नहीं देखा
किसी की राह में हंसते हुए हस्‍ती मिटा देना
न देखा, टूटकर यूं चाहने वाला नहीं देखा
अगर जागी तलब तो आंख से पी ली,मगर हमने
कभी सागर नहीं ढूंढा कभी प्‍याला नहीं देखा
मुहब्‍बत सिर्फ इक अहसास से बढकर बहुत कुछ है
वफ़ा की आंख में हमने कभी जाला नहीं देखा
पहुंचना था जिन्‍हे मंजिल पे ,वो कैसे भी जा पहुंचे
डगर की मुश्‍किले या पांव का छाला नहीं देखा
तुम्‍हारा मानना होगा कि सच का बोलबाला है
मगर हमने यहां झूठे का मुंह काला नहीं देखा

Wednesday, October 20, 2010

करता भी क्‍या ............

रास्‍ता पग पग मिला कांटों भरा करता भी क्‍या
मुझको तो हर हाल में चलना ही था, करता भी क्‍या

मैं न तो घर का ही रह पाया, न पूरा घाट का
मेरी गलती की मिली मुझको सजा, करता भी क्‍या

नींद का आंखों से रिश्‍ता निभ न पाया उम्र भर
भाग्‍य में था रतजगा ही रतजगा करता भी क्‍या

मुझको कब आभास था सच बोलना अपराध है
माननी मुझको पड़ी अपनी ख़ता करता भी क्‍या

उसके हाथों कत्‍ल होने के सिवा चारा न था
ये गलत था तो सही तू ही बता, करता भी क्‍या

मैं निशाने पर सभी के आ गया अब तो अबोध
हर तरफ़ से तीर मुझ पर ही चला करता भी क्‍या

चिंतन के विस्‍तार बहुत हैं

यूं तो हम खुद्दार बहुत हैं
पर दिल से लाचार बहुत हैं

एक वक्‍त खाकर सोते हैं
ऐसे भी परिवार बहुत हैं

मैना है अब भी पिंजरे में
कहने को अधिकार बहुत हैं

उससे लड़ मरने का मन है
पर, उसके उपकार बहुत हैं

हरिश्‍चन्‍द्र बिकने आते हैं
ऐसे भी बाज़ार बहुत हैं

पूरा दिन दफतर में बीता
ऐसे भी इतवार बहुत हैं

वो क्‍या जानें टूटे दिल में
यादों के अम्‍बार बहुत हैं

जिनका सच है केवल पैसा
ऐसे भी अख़बार बहुत हैं

हर शय में उसका ही चेहरा
चिन्‍तन के विस्‍तार बहुत हैं

आज जो हंसकर मिला

आज जो हंसकर मिला कल उसका तेवर और हो ।
ये न हो मंज़र के पीछे कोई मंज़र और हो ।।

एक ने गुमराह कर डाला तुझे तो क्‍या हुआ
मंज़िलों का जो पता दे कोई रहबर और हो ।।

मैंने शक जिसपर किया, हो दोष उसका भी नहीं
क्‍या पता सीने में उतरा कोई खंजर और हो ।।

एक मौका हाथ से छूटा तो मत अफसोस कर
तुझको जो ऊंचाइयां दे, कोई अवसर और हो ।।

तू अगर संघर्ष से पीछे हटा तो, सोच ले
ये भी हो सकता है हालत,और बदतर, और हो ।।

ये हकीकत है कि मैं जीता नहीं उससे कभी
पर तमन्‍ना है कि उससे एक टक्‍कर और हो ।।

तू नज़र का दायरा सीमित न कर मुझ तक अबोध
ये भी हो सकता है मुझसे कोई बेहतर और हो ।।

प्रभु तुम तो अपनी प्रिया से कभी अलग न रहे---------फिर अपने भक्‍तों पर यह जुल्‍म क्‍यों ।।।

तीन मुक्‍तक

कि हम वो हैं जो हर
तूफान का रूख मोड़ देते हैं
उन्‍हे अपना बनाते हैं
जिन्हें सब छोड़ देते हैं
हमेशा जीत हो मैदान में
मुमकिन नहीं लेकिन
समय हो साथ तो
शीशे भी पत्‍थर तोड़ देते हैं ।
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वफ़ा की दोस्‍ती की
हर कसम को तोड़ देते हैं
पकड़कर हाथ जाने लोग
कैसे छोड़ देते हैं
जिसे कहते हैं अपना भाई
सीने से लगाते हैं
उसी भाई से अखबारों में
रिश्‍ता तोड़ देते हैं ।।
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सभी के साथ कुछ रिश्‍ता
निभाना भी जरूरी है
हमे है फिक्र उसकी
ये दिखाना भी जरूरी है
न मैं अभिमान करता हूं
मगर सम्‍मान की खातिर
मैं क्‍या हूं कौन हूं, इतना
बताना भी जरूरी है ।।।।

मां ने कितना चाहा था------------

इक अच्‍छा इंसान बनूं मैं
मां ने कितना चाहा था ।
जीवन में आगे निकलूं मैं
मां ने कितना चाहा था ।

पुरखों की पावन खुश्‍बू से
नित जो महका करता था
उस आंगन के बीच रहूं मैं
मां ने कितना चाहा था ।

हर सुन्‍दर लड़की से मिलकर
सपने बुनने लगती थी
उसके मन का ब्‍याह करूं मैं
मां ने कितना चाहा था ।

ख़त लिख‍ने का वक्‍त नहीं जो
इतना तो कर सकता हूं
पलभर उसको फोन करूं मैं
मां ने कितना चाहा था ।

बाबू जी गुज़रें हैं जबसे
घर खाली सा लगता है
कुछ दिन उसके साथ रहूं मैं
मां ने कितना चाहा था ।

साल हुआ तुम सब को देखे
दीवाली पर आ जाऊं
घर आंगन में दीप धरूं मैं
मां ने कितना चाहा था ।

किस चिंता में घुलकर बेटा
हंसना भूल गया है तू
अपने दिल की बात कहूं मैं
मां ने कितना चाहा था ।

एक अकेली बूढ़ी घर में
सर टकराती रहती है
कुछदिन अपने साथ रखूं मैं
मां ने कितना चाहा था ।
सच ,
मां ने कितना चाहा था ।।।