Tuesday, February 20, 2018

एक व्यथा कथा

आख़िरकार उसे बचाया नहीं जा सका......

जी हाँ, एड़ी चोटी के जोर लगाए.....ये डॉक्टर कभी वो डॉक्टर....ये अस्पताल तो कभी वो अस्पताल...मग़र अंततोगत्वा, खोना ही पड़ा एक प्रिय साथी !!! तक़रीबन 45-46 सालों का मुसलसल साथ....हर वक़्त... खाने में पीने में..सोने में..जागने में..हँसने में..खिलखिलाने में...कैसे....आख़िर कैसे मैं अपने इतने निकट..इतने प्रिय को यूँ ही बीमार रह कर तिल-तिल मरने देता । हालाँकि, उसकी इस हालत के लिए कहीं न कहीं मैं ही जिम्मेदार हूँ। सो, अपनी अपराधबोध मुक्ति के लिए या कि उसके जुदा होने के खौफ़ के चलते ही उसे स्वस्थ करने के लिए बाक़ी सभी ज़रूरी काम एक तरफ़ कर, पिछली 23 जनवरी से सतत डॉक्टर, अस्पताल के चक्कर लग रहे थे। वैसे, उसके गम्भीर रूप से बीमार होने का सप्रमाण पता 19 जनवरी को ही लग गया था। लेकिन अच्छे डॉक्टर का अपॉइंटमेंट लेने में 2-3 दिन लग ही गये।
मृदुभाषी, सुन्दर सी लेडी डॉक्टर रूचि प्रियदर्शनी (हालाँकि पहली विज़िट में चेहरे पर मॉस्क लगाये सुंदरता का सुनिश्चित उदघोष तो सम्भव नहीं था, पर देहयष्टि, आँखें आदि से यह तय था कि वह प्रियदर्शनी ही थी) ने बेहद रोषभरे स्वर में कहा- इतनी अच्छी पर्सनैलिटी और ये हाल इसका....मेरे पास अपनी लापरवाही का कोई माकूल जवाब नहीं था। प्रारम्भिक चेकअप के बाद उसने सांत्वना दी--बचाने की पूरी कोशिश करेंगे हम लोग.. बाक़ी तो ..बस..। अस्तांचल की ओर बढ़ते मेरे उम्मीद के सूरज में तनिक रौशनी का सूत्रपात हुआ। ख़ैर, एक्स रे पर एक्स रे.... एक्सपर्ट ओपिनियन... सीनियर डॉक्टर ने मुँह पिचकाते हुए कहा-- हूँ..उम्मीद तो कम ही है....... ....इंफेक्शन पूरी तरह फैल चुका है। फिर भी, एक बड़े एक्स रे के लिए रैफर करने पर सहमति बनी। जबकि ऑपरेशन की प्रक्रिया शुरू ही होने वाली थी, लोकल एनस्थीसिया दे दिया गया था। फिर वापसी.... महिला डॉक्टर ने अफ़सोस जताया, सॉरी, आज एनस्थीसिया इंजेक्शन यूँ ही झेलना पड़ा आपको।उम्मीद तो 10 परसेंट से ज्यादा नहीं है, फिर भी एक बार कोशिश में क्या बुराई है।  डॉ0डोडा का लैब है करोलबाग में, मेट्रो पिलर 115 के सामने। फिर, रिपोर्ट के बाद देखते हैं... चिंता न करें, बचाने की पुरजोर कोशिश की जाएगी.।।
सोचा, 69वां गणतंत्र है, ये तो मना ही लें, अब जो होना है सो एक दिन बाद...चलो, 27 जनवरी को ये भी हुआ.... रजिस्ट्रेशन...टोकन...पेमेंट.... बड़ा सा कमरा...बड़ी सी मूविंग एक्सरे मशीन...दुबली पतली सी दक्षिण भारतीय एक्सरे टेक्नीशियन....29 को रिपोर्ट के साथ फिर वहीँ चित्रगुप्त रोड वाले वेलनेस सेंटर आया।  लंच चल रहा था, डॉक्टर का समर्पण देखिये...सब्जी में डूबी उँगलियों से ही एक्सरे छत की ओर किया और, ,,, खाना भकोसती साथी डॉक्टरों की ओर देखती हुई बुदबुदाई.....उंहुं... नो चांस...। फिर बोली, आप जरा बाहर वेट करिए.. अभी बताते हैं।
चैम्बर से बाहर आ गया...क्या बताते हैं... बता तो दिया... ख़ैर, कुछ देर बाद मुझे भीतर बुलाकर एडवाइज की गई, यहाँ तो पॉसिबल न है, किसी बड़े गवर्मेंट हॉस्पिटल के लिए रैफर कर रही हूँ...बोलिये, आर एल एल या फिर जहां भी आपको ठीक लगे। बस्स... एक हफ़्ते की भाग-दौड़ दफ़्तर से छुट्टी...पैसा ख़र्चा... अब सरकारी बड़े अस्पताल जाओ। शायद, इसी पचड़े के कारण मोटे पैसेवाले लोग सीधे थ्री-फोर स्टार प्राइवेट हॉस्पिटल का ही रुख़ करते हैं।
ऐसे ही वक़्त में दोस्तों की याद आती है, याद आया, डॉ0संजय कँवर का, व्हाट्स एप पर फ्रेंड हैं... पिछली बार पांचेक साल पहले अम्बेडकर अस्पताल में भेंट हुई थी। धर्म राजनीति पर व्हाट्स एप पर ख़ूब फारवर्ड-फारवर्ड खेलते हैं हमलोग....डॉ0साहब बीजेपी के धुर विरोधी.... उनका बस चले, तो हर भगवा को तड़ीपार कर दें। पर, मतलब अपना था, सो फोन किया, मिलने का वक़्त माँगा। अब 2 फरबरी आ गई थी, बोले एक्सरे देखकर ही कुछ बताऊंगा, अब मैं भगवान महावीर हॉस्पिटल पीतमपुरा में हूँ ।  चलो पहले पूछ लिया, वरना मैं तो अम्बेडकर में ही ढूंढ़ता, ओह! सरकारी डॉक्टरों के भी तो तबादले होते हैं।
पहले दिन पहुँचने में देर हो गई, ओपीडी रजिस्ट्रेशन 12 बजे बन्द हो चुका था। कमरा न0112 में घुसा तो डॉ0साहब लंच के लिए जा रहे थे शायद...बेमन से नमस्ते हुई। चेहरे के भाव कुछ यूँ रहे होंगे...चल दिए मुँह उठा कर.. डॉक्टर तो जैसे इनके बाप का नौकर है... उसे खाने पीने का हक़ कहाँ है...।   मैं इंतज़ार करता हूँ डॉक्टर साहब...कोई बात नहीं। अरे नहीं, आप बैठिये, मैं अभी आता हूँ, कहकर बन्दा निकल लिया। आधा घण्टे बाद अवतरित हुए, एक्सरे देखा तो तपाक से बोले, कोई फायदा नहीं। इसे जाना ही होगा। ऐसा करो, मंगल को आ जाओ... मैं करता हूँ। फिर एक नज़र मेरे उदास चेहरे पर डालते हुए बोले, ये दवाई 3-4 दिन ले लो... लिख दूँ ? मेरे मुँह में अल्फ़ाज़ न थे, सर हिला दिया सहमति में। भारी कदमों से वापिस आ गया। अब कोई उम्मीद न बची थी। ख़ैर, अब और क्या किया जा सकता है!!
दिल्ली के सरकारी अस्पताल के ओपीडी की लंबी क्यू से ख़ौफ़ खाकर सोमवार से ही ऑन लाइन रजिस्ट्रेशन के लिए यूजर आईडी बनाई,  6 फरबरी सुबह 7 बजे से ही कोशिश करके जैसे-तैसे रजिस्ट्रेशन हुआ। ऑफिस से सबकी शुभ कामनाएं लेकर निकला, फिर भी 12 बजे पहुँच पाया। इस पूरे दौरान एक व्यक्ति जो हर पल मेरे साथ परेशान और चिंतित रहा वो सिर्फ़ बब्बू ही था और दूसरा मैं...। प्रारम्भिक औपचारिकताएं.... कन्सेंट के दो पेज के छपे फार्म पर दस्तख़त ले लिए। घर का पता, पिता का नाम...वग़ैरह वग़ैरह... कुछ ऊँच-नीच हो तो किसे ख़बर करें...। डॉ0 संजय अपने जूनियर डॉ0को बीपी, एनस्थीसिया और बाक़ी डॉक्टरी भाषा में निर्देश देकर..कि तब तक मैं आता हूँ, निकल लिए। ख़ैर, 3-4 इंजेक्शन ठोक कर डॉ0ने एक नुकीला औज़ार चुभाते हुए पूछा--लग तो नहीं रहा है न ?? अब भैया, लग भी रहा होगा तो क्या कर लूँगा। मैंने निरीह भाव से सिर हिलाया। अब तो पूरी ताक़त से डॉ0 जुट गया, इधर कट तो ब्लड ही ब्लड... बीच  बीच में मेरी पीड़ा का अनुभव करते हुए पूछता- खिंचाव ज्यादा तो नहीं हो रहा.... और फिर  से प्रयास में जुट जाता। आधा घण्टे में मित्र डॉ0 संजय भी लौट आये--कहाँ तक पहुँचे??? ओके..गुड.. फिर कुछ पलों के लिए हरे पर्दे के उस पार अपने किसी सहयोगी से राजनीतिक चर्चा में लग गए-- ताज महोत्सव में राम लीला...भला ये भी कोई तुक है..ये देश का सत्यानाश कर के ही दम लेंगे...फिर भीतर आये । चलो छोड़ो, तुम लंच करो, मैं ही करता हूँ... तुमसे नहीं होगा। और, मॉस्क चढ़ाकर, ग्लव्ज़ पहिनकर संजय कँवर जी औज़ारों के साथ झुक गए। एक अदना से बीमार कमज़ोर दाँत की इतनी ज़ुर्रत.... डॉक्टर फुल फॉर्म में थे और मैं भगवान को याद कर रहा था। कुछ देर की जद्दो-जहद के बाद... पूरी ताक़त से ... जम्बुड़े की गिरफ़्त में लहूलुहान दाँत हवा में लहरा रहा था। उन्होंने गर्व से जूनियर डॉक्टर की ओर देखा... चलो, ड्रेसिंग कर दो।
उफ़्फ़... हर ख़ुशी हर दुःख की साथी ... खून से लथपथ वह मेरी दाढ़...बेजान सी में वेस्ट ट्रे में पड़ी छटपटा रही थी... कुछ हफ़्तों के साथी के बिछुड़ने पर भी अफ़सोस होता है...यह साथ तो 40-45 सालों से भी लम्बा था। मैंने एक गहरी निःश्वास ली। चेहरे की सूजन बता रही थी कि मक़तूल ने खुद को बचाने के लिए,  कितनी बड़ी लड़ाई लड़ी है डॉक्टर और हथियारों से...मैंने हल्के से वाश बेसिन में खून के धब्बे साफ़ किये और भारी क़दमो से धीरे-धीरे बाहर आ गया।  ये ज़ख्म भी भर जायेगा जो अभी हरा है... पर जो मेरी अपनी लापरवाही से हमेशा के लिए बिछड़ गया उसके यूँ जाने का दुःख अर्से तक सालता रहेगा, ये तय है.....।
--------- मनोज अबोध   6  फरबरी 2018

1 comment:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपको सूचित किया जा रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज बुधवार (21-02-2018) को
"सुधरा है परिवेश" (चर्चा अंक-2886)
पर भी होगी!
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'