Thursday, May 5, 2011

ऐसा भी वक्‍त था....

सिर शान से उठाये

सदियों से हम खड़े थे
तूफान हो कि बारिश,

हम किससे कब डरे थे

सूखी लताएं पत्‍ते,

बस ठूंठ रह गए अब
इक ऐसा वक्‍त भी था

हम भी हरे भरे थे...

30 comments:

nilesh mathur said...

बेहतरीन पंक्तियाँ , आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आया हूँ, बहुत अच्छा लगा पढ़कर!

SANDEEP PANWAR said...

वक्त था नहीं, अब भी है वैसा ही, मस्त शानदार और हमेशा रहेगा।

Sunil Kumar said...

और वह बृक्ष कह रहा है कुछ तो बात है की मिटती हस्ती नही हमारी ......

Rachana said...

bahut sunder bhav
ek vakht tha hum bhi hare the
badhai
rachana

ज्योति सिंह said...

bahut achchha laga aakar aur padhkar

डॉ. मोनिका शर्मा said...

समय के साथ कुछ चीज़ें बदलती हैं और कुछ कभी नहीं बदलतीं ...... सुंदर सोच लिए रचना

Coral said...

बहुत सुन्दर रचना

http://rimjhim2010.blogspot.com/2011/05/happy-mothers-day.html

Kunwar Kusumesh said...

अच्छे-बुरे सभी दिन आते जाते रहते हैं.
जीवन है संघर्ष हमें बतलाते रहते हैं.

daanish said...

ये चंद पंक्तियाँ
हमारे परिवेश और परिस्थितियों
और हमारे सामाजिक अवस्था को भी
बयान कर रही हैं .... वाह !

डॉ० डंडा लखनवी said...

जगत की परिवर्तनशीलता आपकी रचना का अंर्तनिहित मर्म है। एक अन्य पोस्ट में गजल का यह मतला हृदय को छू गया।
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कहावत है, जुबां पर सत्‍य की ताला नहीं देखा।
मगर हर शख्‍स तो सच बोलने वाला नहीं देखा॥
-मनोज अबोध
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भगवान राम ने शिव-धनुष तोड़ा, सचिन ने क्रिकेट में रिकार्ड तोड़ा, अन्ना हजारे ने अनशन तोड़ा, प्रदर्शन-कारियों रेलवे-ट्रैक तोड़ा, विकास-प्राधिकरण ने झुग्गी झोपड़ियों को तोड़ा। अपने- अपने तरीके से तोड़ा-तोड़ी की परंपरा हमारे देश में सदियों पुरानी है। आपने कुछ तोड़ा नहीं अपितु अपनी रचनात्मकता से दिलों को जोड़ा है। इस करुणा और ममत्व को बनाए रखिए। भद्रजनों के जीवन की यह पतवार है। आपकी रचनाओं का यही सार है। साधुवाद!
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सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी

Monday, May 09, 2011

CS Devendra K Sharma "Man without Brain" said...

hare bhare the....asha hai hare bhare "ever green" rahen....

hari bhari sunder rachna...

RUBY said...

mann, aaj kal tou go green ka jamana hai. ye greeb se trees kahin japani park k tou nahi?jab copy correct kar rahe the n.

Dr (Miss) Sharad Singh said...

सूखी लताएं पत्‍ते,
बस ठूंठ रह गए अब
इक ऐसा वक्‍त भी था
हम भी हरे भरे थे...


इस भावभीनी ह्रदयस्पर्शी कविता के लिए हार्दिक बधाई...

Anju (Anu) Chaudhary said...

सूख जाने का डर एक वृक्ष से ज्यदा और कौन जानेगा
बहुत अच्छी प्रस्तुति

Vivek Jain said...

बहुत अच्छा विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

Urmi said...

आपकी उत्साह भरी टिप्पणी और हौसला अफजाही के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!
बहुत सुन्दर, भावपूर्ण और शानदार रचना लिखा है आपने ! बधाई!

हमारीवाणी said...

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Pawan Kumar said...

manoj ji
बस ठूंठ रह गए अब
इक ऐसा वक्‍त भी था


हम भी हरे भरे थे...
क्या बात है...
बहुत खूब छोटी कविता में एहसासों के जो रंग आपने भरे हैं वो बड़े शादाब हैं...!!! उम्दा रचना .

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') said...

किस सादगी से अभिव्यक्त कर दिए आपने पर्यावरण पर खूबसूरत भाव.....
आभार...

manu said...

bahut umdaa manoj ji...


sir shaan se uthaaye...
bahut sundar varnan kiyaa hai...

Amrita Tanmay said...

अच्छा लिखा है...

todaythoughts said...

बहुत खूब कहा है आपने ।

सदा said...

सहज एवं कम शब्‍दों में बहुत ही गहरी बात कही आपने ।

Shikha Kaushik said...

man ko chhoo lene vali panktiyan .badhai swikar karen .

Shalini kaushik said...

सिर शान से उठाये

सदियों से हम खड़े थे
तूफान हो कि बारिश,

हम किससे कब डरे थे

सूखी लताएं पत्‍ते,

बस ठूंठ रह गए अब
इक ऐसा वक्‍त भी था

हम भी हरे भरे थे...
kya kahoon poori kavita hi aisee lagi kee tippani me copy kar le aayee.bahut sundar.aap ab taq kahan chhipe the .aap to hamse pahle is blog jagat se jude hain aur hame aaj aapkee tippani ke madhyam se aapkee pratibha ka pata chala.aage se aap nirantarta banaye rakhen yahi prarthna hai.aabhar.

Vivek Jain said...

बेहतरीन पंक्तियाँ विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

Pawan Kumar said...

मनोज जी......
बहुत प्यारी भावनाएं हैं इस कविता में....
वृक्षों की ज़ुबानी है ये कविता.....
प्रभावशाली अभिव्यक्ति के लिए आभार.
सिर शान से उठाये


सदियों से हम खड़े थे
तूफान हो कि बारिश,
बहुत सुन्दर.... बहुत अभिनव.

Manoranjan Manu Shrivastav said...

पेंड़ो की ये अंतर्व्यथा , अगर हमने न सुनी तो ये पंकिया एक दिन हमारे ऊपर भी चरितार्थ होंगी
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क्या मानवता भी क्षेत्रवादी होती है ?

बाबा का अनशन टुटा !

Dr Varsha Singh said...

बस ठूंठ रह गए अब
इक ऐसा वक्‍त भी था

हम भी हरे भरे थे...

बहुत सार्थक सन्देशपरक रचना.

Shanno Aggarwal said...

बहुत सुंदर रचना...और आपका ब्लाग भी बहुत सुंदर है, मनोज जी.