जगत की परिवर्तनशीलता आपकी रचना का अंर्तनिहित मर्म है। एक अन्य पोस्ट में गजल का यह मतला हृदय को छू गया। ============================== कहावत है, जुबां पर सत्य की ताला नहीं देखा। मगर हर शख्स तो सच बोलने वाला नहीं देखा॥ -मनोज अबोध ============================== भगवान राम ने शिव-धनुष तोड़ा, सचिन ने क्रिकेट में रिकार्ड तोड़ा, अन्ना हजारे ने अनशन तोड़ा, प्रदर्शन-कारियों रेलवे-ट्रैक तोड़ा, विकास-प्राधिकरण ने झुग्गी झोपड़ियों को तोड़ा। अपने- अपने तरीके से तोड़ा-तोड़ी की परंपरा हमारे देश में सदियों पुरानी है। आपने कुछ तोड़ा नहीं अपितु अपनी रचनात्मकता से दिलों को जोड़ा है। इस करुणा और ममत्व को बनाए रखिए। भद्रजनों के जीवन की यह पतवार है। आपकी रचनाओं का यही सार है। साधुवाद! ===================== सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी
हम भी हरे भरे थे... kya kahoon poori kavita hi aisee lagi kee tippani me copy kar le aayee.bahut sundar.aap ab taq kahan chhipe the .aap to hamse pahle is blog jagat se jude hain aur hame aaj aapkee tippani ke madhyam se aapkee pratibha ka pata chala.aage se aap nirantarta banaye rakhen yahi prarthna hai.aabhar.
पेंड़ो की ये अंतर्व्यथा , अगर हमने न सुनी तो ये पंकिया एक दिन हमारे ऊपर भी चरितार्थ होंगी -------------------------------------------- क्या मानवता भी क्षेत्रवादी होती है ?
30 comments:
बेहतरीन पंक्तियाँ , आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आया हूँ, बहुत अच्छा लगा पढ़कर!
वक्त था नहीं, अब भी है वैसा ही, मस्त शानदार और हमेशा रहेगा।
और वह बृक्ष कह रहा है कुछ तो बात है की मिटती हस्ती नही हमारी ......
bahut sunder bhav
ek vakht tha hum bhi hare the
badhai
rachana
bahut achchha laga aakar aur padhkar
समय के साथ कुछ चीज़ें बदलती हैं और कुछ कभी नहीं बदलतीं ...... सुंदर सोच लिए रचना
बहुत सुन्दर रचना
http://rimjhim2010.blogspot.com/2011/05/happy-mothers-day.html
अच्छे-बुरे सभी दिन आते जाते रहते हैं.
जीवन है संघर्ष हमें बतलाते रहते हैं.
ये चंद पंक्तियाँ
हमारे परिवेश और परिस्थितियों
और हमारे सामाजिक अवस्था को भी
बयान कर रही हैं .... वाह !
जगत की परिवर्तनशीलता आपकी रचना का अंर्तनिहित मर्म है। एक अन्य पोस्ट में गजल का यह मतला हृदय को छू गया।
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कहावत है, जुबां पर सत्य की ताला नहीं देखा।
मगर हर शख्स तो सच बोलने वाला नहीं देखा॥
-मनोज अबोध
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भगवान राम ने शिव-धनुष तोड़ा, सचिन ने क्रिकेट में रिकार्ड तोड़ा, अन्ना हजारे ने अनशन तोड़ा, प्रदर्शन-कारियों रेलवे-ट्रैक तोड़ा, विकास-प्राधिकरण ने झुग्गी झोपड़ियों को तोड़ा। अपने- अपने तरीके से तोड़ा-तोड़ी की परंपरा हमारे देश में सदियों पुरानी है। आपने कुछ तोड़ा नहीं अपितु अपनी रचनात्मकता से दिलों को जोड़ा है। इस करुणा और ममत्व को बनाए रखिए। भद्रजनों के जीवन की यह पतवार है। आपकी रचनाओं का यही सार है। साधुवाद!
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सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी
Monday, May 09, 2011
hare bhare the....asha hai hare bhare "ever green" rahen....
hari bhari sunder rachna...
mann, aaj kal tou go green ka jamana hai. ye greeb se trees kahin japani park k tou nahi?jab copy correct kar rahe the n.
सूखी लताएं पत्ते,
बस ठूंठ रह गए अब
इक ऐसा वक्त भी था
हम भी हरे भरे थे...
इस भावभीनी ह्रदयस्पर्शी कविता के लिए हार्दिक बधाई...
सूख जाने का डर एक वृक्ष से ज्यदा और कौन जानेगा
बहुत अच्छी प्रस्तुति
बहुत अच्छा विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
आपकी उत्साह भरी टिप्पणी और हौसला अफजाही के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!
बहुत सुन्दर, भावपूर्ण और शानदार रचना लिखा है आपने ! बधाई!
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manoj ji
बस ठूंठ रह गए अब
इक ऐसा वक्त भी था
हम भी हरे भरे थे...
क्या बात है...
बहुत खूब छोटी कविता में एहसासों के जो रंग आपने भरे हैं वो बड़े शादाब हैं...!!! उम्दा रचना .
किस सादगी से अभिव्यक्त कर दिए आपने पर्यावरण पर खूबसूरत भाव.....
आभार...
bahut umdaa manoj ji...
sir shaan se uthaaye...
bahut sundar varnan kiyaa hai...
अच्छा लिखा है...
बहुत खूब कहा है आपने ।
सहज एवं कम शब्दों में बहुत ही गहरी बात कही आपने ।
man ko chhoo lene vali panktiyan .badhai swikar karen .
सिर शान से उठाये
सदियों से हम खड़े थे
तूफान हो कि बारिश,
हम किससे कब डरे थे
सूखी लताएं पत्ते,
बस ठूंठ रह गए अब
इक ऐसा वक्त भी था
हम भी हरे भरे थे...
kya kahoon poori kavita hi aisee lagi kee tippani me copy kar le aayee.bahut sundar.aap ab taq kahan chhipe the .aap to hamse pahle is blog jagat se jude hain aur hame aaj aapkee tippani ke madhyam se aapkee pratibha ka pata chala.aage se aap nirantarta banaye rakhen yahi prarthna hai.aabhar.
बेहतरीन पंक्तियाँ विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
मनोज जी......
बहुत प्यारी भावनाएं हैं इस कविता में....
वृक्षों की ज़ुबानी है ये कविता.....
प्रभावशाली अभिव्यक्ति के लिए आभार.
सिर शान से उठाये
सदियों से हम खड़े थे
तूफान हो कि बारिश,
बहुत सुन्दर.... बहुत अभिनव.
पेंड़ो की ये अंतर्व्यथा , अगर हमने न सुनी तो ये पंकिया एक दिन हमारे ऊपर भी चरितार्थ होंगी
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क्या मानवता भी क्षेत्रवादी होती है ?
बाबा का अनशन टुटा !
बस ठूंठ रह गए अब
इक ऐसा वक्त भी था
हम भी हरे भरे थे...
बहुत सार्थक सन्देशपरक रचना.
बहुत सुंदर रचना...और आपका ब्लाग भी बहुत सुंदर है, मनोज जी.
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