Monday, September 30, 2013

एक ग़ज़ल........................

बनाकर  बेवजह  मशहूर  मुझको
न कर यूँ ख़ुद से इतना दूर मुझको

तुम्हारी चोट पहुँचाने की आदत
कहीं कर दे न चकनाचूर मुझको
 
सहे जाती है हर ग़म मुस्कुराकर
कभी करती नहीं मजबूर मुझको

सफ़र को बीच में ही छोड़ दूँ मैं
नहीं ये फैसला मंज़ूर मुझको

रिसे हैं उम्र-भर मेरी रगों से 
मिले हर सिम्त वो नासूर मुझको

अभी टूटे न इन साँसों की डोरी
निभाने हैं कई दस्तूर मुझको

अलग ये बात है, मैं जी न पाया
मिली थी ज़िन्दगी भरपूर मुझको
              ---- मनोज अबोध

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