Wednesday, October 20, 2010

चिंतन के विस्‍तार बहुत हैं

यूं तो हम खुद्दार बहुत हैं
पर दिल से लाचार बहुत हैं

एक वक्‍त खाकर सोते हैं
ऐसे भी परिवार बहुत हैं

मैना है अब भी पिंजरे में
कहने को अधिकार बहुत हैं

उससे लड़ मरने का मन है
पर, उसके उपकार बहुत हैं

हरिश्‍चन्‍द्र बिकने आते हैं
ऐसे भी बाज़ार बहुत हैं

पूरा दिन दफतर में बीता
ऐसे भी इतवार बहुत हैं

वो क्‍या जानें टूटे दिल में
यादों के अम्‍बार बहुत हैं

जिनका सच है केवल पैसा
ऐसे भी अख़बार बहुत हैं

हर शय में उसका ही चेहरा
चिन्‍तन के विस्‍तार बहुत हैं

4 comments:

Panchali Pratigya (पांचाली प्रतिज्ञा : खंडकाव्य) said...

really nice one...

Amrita Tanmay said...

बहुत उम्दा..

Shanno Aggarwal said...

ये ग़ज़ल बहुत ही खूबसूरत लगी.

मनोज अबोध said...

आप सभी का बहुत बहुत आभार ।।।