कैसे कैसे मंज़र हैं
घर वाले भी बेघर हैं
जिनको भीतर होना था
ज्यादातर सब बाहर हैं
हो लेते हैं सोच के खुश
हम कितनो से बेहतर हैं
दुख में जोर से हँसता हूँ
अपने अपने तेवर हैं
जिनको गुज़रे युग बीते
वे सब मेरे भीतर हैं
दुनिया में है रक्खा क्या
कुछ मोती कुछ पत्थर हैं
-------- मनोज अबोध
घर वाले भी बेघर हैं
जिनको भीतर होना था
ज्यादातर सब बाहर हैं
हो लेते हैं सोच के खुश
हम कितनो से बेहतर हैं
दुख में जोर से हँसता हूँ
अपने अपने तेवर हैं
जिनको गुज़रे युग बीते
वे सब मेरे भीतर हैं
दुनिया में है रक्खा क्या
कुछ मोती कुछ पत्थर हैं
-------- मनोज अबोध
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