Thursday, May 5, 2011

ऐसा भी वक्‍त था....

सिर शान से उठाये

सदियों से हम खड़े थे
तूफान हो कि बारिश,

हम किससे कब डरे थे

सूखी लताएं पत्‍ते,

बस ठूंठ रह गए अब
इक ऐसा वक्‍त भी था

हम भी हरे भरे थे...

Friday, March 25, 2011

एक मुक्‍तक

दर्द का सिलसिला भी नहीं

कोई शिकवा गिला भी नहीं ।

कोशिशें भी न ज्‍यादा हुईं

आप जैसा मिला भी नहीं ।।

दोहा

राह निहारूं दिन-बरस, गया नयन जल रीत ।

कितने मौसम प्रेम के, गए तिरे-बिन बीत ।।

बनने मत देना कभी, मन में कोई भीत ।

जब कोई शंका उठे, खुलकर कहना मीत ।।

Thursday, October 21, 2010

शीत न हो संबंध ये ..........

शीत न हों ये हाथ अब
शीत न हों संबंध
शीत युद्ध से मुक्‍त हों
मित्रों के अनुबन्‍ध ।


मन्‍द न पड़ जाए कहीं
संबंधों की आंच
सुख की दुख की चिटिठयां
खुले हृदय से बांच ।


मौसम की सौगात हैं
पाला शीत कुहास
पर उसको ये व्‍यर्थ हैं
जिसको तेरी आस ।

झूठे का मुंह काला नहीं देखा...........

कहावत है, जुबां पर सत्‍य की ताला नहीं देखा
मगर हर शख्‍स तो सच बोलने वाला नहीं देखा
किसी की राह में हंसते हुए हस्‍ती मिटा देना
न देखा, टूटकर यूं चाहने वाला नहीं देखा
अगर जागी तलब तो आंख से पी ली,मगर हमने
कभी सागर नहीं ढूंढा कभी प्‍याला नहीं देखा
मुहब्‍बत सिर्फ इक अहसास से बढकर बहुत कुछ है
वफ़ा की आंख में हमने कभी जाला नहीं देखा
पहुंचना था जिन्‍हे मंजिल पे ,वो कैसे भी जा पहुंचे
डगर की मुश्‍किले या पांव का छाला नहीं देखा
तुम्‍हारा मानना होगा कि सच का बोलबाला है
मगर हमने यहां झूठे का मुंह काला नहीं देखा

Wednesday, October 20, 2010

करता भी क्‍या ............

रास्‍ता पग पग मिला कांटों भरा करता भी क्‍या
मुझको तो हर हाल में चलना ही था, करता भी क्‍या

मैं न तो घर का ही रह पाया, न पूरा घाट का
मेरी गलती की मिली मुझको सजा, करता भी क्‍या

नींद का आंखों से रिश्‍ता निभ न पाया उम्र भर
भाग्‍य में था रतजगा ही रतजगा करता भी क्‍या

मुझको कब आभास था सच बोलना अपराध है
माननी मुझको पड़ी अपनी ख़ता करता भी क्‍या

उसके हाथों कत्‍ल होने के सिवा चारा न था
ये गलत था तो सही तू ही बता, करता भी क्‍या

मैं निशाने पर सभी के आ गया अब तो अबोध
हर तरफ़ से तीर मुझ पर ही चला करता भी क्‍या

चिंतन के विस्‍तार बहुत हैं

यूं तो हम खुद्दार बहुत हैं
पर दिल से लाचार बहुत हैं

एक वक्‍त खाकर सोते हैं
ऐसे भी परिवार बहुत हैं

मैना है अब भी पिंजरे में
कहने को अधिकार बहुत हैं

उससे लड़ मरने का मन है
पर, उसके उपकार बहुत हैं

हरिश्‍चन्‍द्र बिकने आते हैं
ऐसे भी बाज़ार बहुत हैं

पूरा दिन दफतर में बीता
ऐसे भी इतवार बहुत हैं

वो क्‍या जानें टूटे दिल में
यादों के अम्‍बार बहुत हैं

जिनका सच है केवल पैसा
ऐसे भी अख़बार बहुत हैं

हर शय में उसका ही चेहरा
चिन्‍तन के विस्‍तार बहुत हैं

आज जो हंसकर मिला

आज जो हंसकर मिला कल उसका तेवर और हो ।
ये न हो मंज़र के पीछे कोई मंज़र और हो ।।

एक ने गुमराह कर डाला तुझे तो क्‍या हुआ
मंज़िलों का जो पता दे कोई रहबर और हो ।।

मैंने शक जिसपर किया, हो दोष उसका भी नहीं
क्‍या पता सीने में उतरा कोई खंजर और हो ।।

एक मौका हाथ से छूटा तो मत अफसोस कर
तुझको जो ऊंचाइयां दे, कोई अवसर और हो ।।

तू अगर संघर्ष से पीछे हटा तो, सोच ले
ये भी हो सकता है हालत,और बदतर, और हो ।।

ये हकीकत है कि मैं जीता नहीं उससे कभी
पर तमन्‍ना है कि उससे एक टक्‍कर और हो ।।

तू नज़र का दायरा सीमित न कर मुझ तक अबोध
ये भी हो सकता है मुझसे कोई बेहतर और हो ।।

प्रभु तुम तो अपनी प्रिया से कभी अलग न रहे---------फिर अपने भक्‍तों पर यह जुल्‍म क्‍यों ।।।

तीन मुक्‍तक

कि हम वो हैं जो हर
तूफान का रूख मोड़ देते हैं
उन्‍हे अपना बनाते हैं
जिन्हें सब छोड़ देते हैं
हमेशा जीत हो मैदान में
मुमकिन नहीं लेकिन
समय हो साथ तो
शीशे भी पत्‍थर तोड़ देते हैं ।
0000000000000000
वफ़ा की दोस्‍ती की
हर कसम को तोड़ देते हैं
पकड़कर हाथ जाने लोग
कैसे छोड़ देते हैं
जिसे कहते हैं अपना भाई
सीने से लगाते हैं
उसी भाई से अखबारों में
रिश्‍ता तोड़ देते हैं ।।
000000000000000
सभी के साथ कुछ रिश्‍ता
निभाना भी जरूरी है
हमे है फिक्र उसकी
ये दिखाना भी जरूरी है
न मैं अभिमान करता हूं
मगर सम्‍मान की खातिर
मैं क्‍या हूं कौन हूं, इतना
बताना भी जरूरी है ।।।।

मां ने कितना चाहा था------------

इक अच्‍छा इंसान बनूं मैं
मां ने कितना चाहा था ।
जीवन में आगे निकलूं मैं
मां ने कितना चाहा था ।

पुरखों की पावन खुश्‍बू से
नित जो महका करता था
उस आंगन के बीच रहूं मैं
मां ने कितना चाहा था ।

हर सुन्‍दर लड़की से मिलकर
सपने बुनने लगती थी
उसके मन का ब्‍याह करूं मैं
मां ने कितना चाहा था ।

ख़त लिख‍ने का वक्‍त नहीं जो
इतना तो कर सकता हूं
पलभर उसको फोन करूं मैं
मां ने कितना चाहा था ।

बाबू जी गुज़रें हैं जबसे
घर खाली सा लगता है
कुछ दिन उसके साथ रहूं मैं
मां ने कितना चाहा था ।

साल हुआ तुम सब को देखे
दीवाली पर आ जाऊं
घर आंगन में दीप धरूं मैं
मां ने कितना चाहा था ।

किस चिंता में घुलकर बेटा
हंसना भूल गया है तू
अपने दिल की बात कहूं मैं
मां ने कितना चाहा था ।

एक अकेली बूढ़ी घर में
सर टकराती रहती है
कुछदिन अपने साथ रखूं मैं
मां ने कितना चाहा था ।
सच ,
मां ने कितना चाहा था ।।।



Thursday, June 17, 2010

तुम.....

तुम.....

तुम
मेरी रूह में समाया
एक
मधुर अहसास हो...
इसीलिए तो
दूर रहकर भी
इतनी पास हो.....
कि/ तुम्‍हारे सांसों की खुश्‍बू
रच-बस गई है
मेरी धड़कनों में...
कि/ तुम्‍हारे नयनों की अल्‍पना
अंकित हो गई है
हृदय के पृष्‍ठ पर...
तुम बिछोह की धुंध में
मिलन का शुभ कयास हो

इसीलिए तो
दूर होकर भी
इतनी पास हो...


तुम..
स्‍मृति शिखरों पर
मचलती
शुभ्र ज्‍योतित
उजास हो...

इसीलिए तो
दूर होकर भी
इतनी पास हो...
कि/ जल तरंग छेड़ती
तुम्‍हारी निर्मल हँसी
पुलकित कर जाती है
मेरे रोम-रोम को..
कि/ समर्पण का
मधुमय पराग लिए
तुम्‍हारे तप्‍त अधर
जगा जाते हैं
मेरे
अंग प्रत्‍यंग को...


तुम
देह की पवित्र अभिलाषा
औ’ आत्‍मा की प्‍यास हो..
इसीलिए तो
दूर रहकर भी
इतनी पास हो...
दूर रहकर भी
इतनी पास हो.......।
00000
मनोज अबोध
27-12-99

Sunday, June 13, 2010

न जाने क्‍यों .......

न जाने क्‍यों.....

मुंह अंधेरे
अलसायी आंखों के साथ
एकदम एकाकी
मुन्‍नी के आने से भी पहले
जूझने लग जाती हो तुम....
जाग जाती है बहुत पहले
तुम्‍हारी दुनिया...
मेरी दुनिया में जब
भोर की पहली किरन भी नहीं पड़ती
तब.. घरघरा उठती है
तुम्‍हारे कुकर की सीटी...
फैल जाती है रसोई से
लिविंग रूम तक
तुम्‍हारे बनाए खास मसालों की भीनी खुश्‍बू
जबकि
तुम्‍हारी दुनिया के सभी दोस्‍त
हनुमान ट्वीटी गोगो बिल्‍ला
झूम उठते हैं
सुबह के खाने की
उस ताज़गीभरी खुश्‍बू से....
पर, मेरी दुनिया तक नहीं आ पाती
वो भीनी खुश्‍बू
न जाने क्‍यों....

मुन्‍नी को
अगली सुबह के लिए पकाई जाने वाली
सब्जियों को
काटने का निर्देश देकर
बैठती हो चुपचाप जब
लेकर सुबह के नाश्‍ते का डब्‍बा....
उदासी की एक बारीक लकीर
खिंच जाती है-
गमले के पौधों से लेकर
डाइनिंग हॉल की खिड़की तक....
लेकिन
उदासी की वो लकीर
नहीं पहुंच पाती मेरी आंखों तक..
न जाने क्‍यों ...
टीवी लैपटॉप पैक्‍टेबल
की झाड़-पौंछ के बीच
बैडरूम की खिड़की से जब
कुछ पलों के लिए
देखती हो
पार्क में बतियाते-मुस्‍कुराते
पेड़ पौधों को..
अपलक चुपचाप..
ठीक उसी पल
भावशून्‍यता का एक तीखा झोंका
गुजर जाता है
तुम्‍हे छू कर...
सावधान मुद्रा में खड़े
सेमल के वृक्ष तक...
ऐसी ही भावशून्‍यता हालांकि
बहुतायत में फैली रहती है
मेरी दुनिया में भी
लेकिन, तुम्‍हारी भावशून्‍यता का
तीखा झोंका
मेरी दुनिया के पेड़ पौधों तक
फिर भी नहीं पहुंच पाता
इसीलिए शायद
डाइनिंग टेबल के कोने पर सजी
मेरी तसवीर पर
नज़र पड़ते ही
अब नहीं फैलती
बरबस ही...
तुम्‍हारे चेहरे पर
मुस्‍कुराहट की कोई लकीर...
यानि/कहनेभर को हैं हम
एक ही दुनिया के बाशिन्‍दे
बल्कि
बहुत, बहुत मायनो में
अलग है हम दोनों की दुनिया
फर्क बस,इतना भर है
तुम्‍हारी दुनिया में
हर तरफ रची-बसी है
मेरी खुश्‍बू
लेकिन मेरी दुनिया के किसी भी कोने में
नहीं बसा है
तुम्‍हारे होने का अहसास...
सिर्फ मेरी आंखों को छोड़कर...
न जाने क्‍यों.
....।।।।।।।
मनोज अबोध
13 जून 2010

Tuesday, March 23, 2010

एक आवाज़

एक आवाज़ ...
जल तरंग सी ...
गूँजती रहती है अक्सर मेरे कानो में,
तुम कब आओगे मन ?

और मेरी आँखों में
तैर जाता है एक चेहरा ,
बेहद मासूम सा ....
उदासी भरा ॥
उसकी बड़ी बड़ी बोझिल आँखों के बाइस्कोप में
तैरते सपने ॥
पूछते हैं एक ही सवाल ..........
कब करोगे इन्हें पूरा ?

इससे पहले कि---
नील-झील आँखों की
तलहटी में डूब जायें --
सुनहरे सपने ..................

इससे पहले कि
खनकती आवाज़ की
जल-तरंग
बदल जाए
खामोश उच्छवासों में

तुम्हें आना ही होगा
सदा सदा के लिए .........।।।।

Wednesday, May 13, 2009

कैसे उसको छोड़ूँ कैसे पाऊँ मैं

कैसे उसको छोड़ूँ कैसे पाऊँ मैं
इस उलझन का तोड़ कहाँ से लाऊँ मैं
आँखें क्यों भीगी-भीगी-सी रहती हैं
कोई गर पूछे तो क्या बतलाऊँ मैं
मेरे भीतर इक नन्हा-सा बच्चा है
ज़िद उसकी कैसे पूरी कर पाऊँ मैं
सीपी शंख नदी तितली औ‘ फूलों के
कितने सपने उसके साथ सजाऊँ मैं
एक तिलस्मी जंगल उसकी आँखों में
राह न पाऊँ और वहीं खो जाऊँ मैं
मेरे पाँव बँधे हैं भूलों के पत्थर
उसके सँग चाहूँ पर कब चल पाऊँ मैं
मेरा पागलपन तो कहता है मुझसे
छोड़ूँ सबको, बस, उसका हो जाऊँ मैं

कुछ वो पागल है कुछ दिवाना भी

कुछ वो पागल है कुछ दिवाना भी
उसको जाना मगर न जाना भी
यूँ तो हर शै में सिर्फ़ वो ही वो
कितना मु्श्क़िल है उसको पाना भी
उसके अहसास को जीना हरपल
यानि, अपने को भूल जाना भी
उससे मिलना, उसी का हो जाना
वो ही मंज़िल, वही ठिकाना भी
भूल की थी, सज़ा मिली कैसी ?
झेलना, उम्र भर निभाना भी
आज पलकों पे होंठ रख ही दो
आज मौसम है कुछ सुहाना भी

एक टूटी छत लिए बरसात का स्वागत करूँ


एक टूटी छत लिए बरसात का स्वागत करूँ,

अब भी क्या बिगड़े हुए हालात का स्वागत करूँ ।

अपना घर जलने के ग़म को भूल भी जाऊँ,मगर

बस्ती-बस्ती किस तरह आपात का स्वागत करूँ ।

मातहत होने का यह तो अर्थ हो सकता नहीं,

उनके हर आदेश का, हर बात का स्वागत करूँ ।

बाप हूँ, ये सच है, लेकिन इसका मतलब नहीं,

रह के चुप, बच्चों के हर उत्पात का स्वागत करूँ ।

हाथ मेरा, तेरे हाथों में जो रह पाए यूँ ही ,

मुस्कुराकर मैं सभी हालात का स्वागत करूँ ।

जब खुलें नींदें मेरी तेरे नयन की भोर हो,

तेरी ज़ुल्फ़ों की घनेरी रात का स्वागत करूँ ।

अपने आप से लड़ता मैं


अपने आप से लड़ता मैं

यानी, ख़ुद पर पहरा मैं

वो बोला-नादानी थी

फिर उसको क्या कहता मैं

जाने कैसा जज़्बा था

माँ देखी तो मचला मैं

साथ उगा था सूरज के

साँझ ढली तो लौटा मैं

वो भी कुछ अनजाना-सा

कुछ था बदला-बदला मैं

झूठ का खोल उतारा तो

निकला सीधा सच्चा मैं

क्या होगा अंजाम, न पूछ


क्या होगा अंजाम, न पूछ

सुबह से मेरी शाम, न पूछ

आगंतुक का स्वागत कर

क्यों आया है काम न पूछ

मेरे भीतर झाँक के देख

मुझसे मेरा नाम न पूछ

पहुँच से तेरी बाहर हैं

इन चीज़ों के दाम न पूछ

रीझ रहा है शोहरत पर

कितना हूँ बदनाम न पूछ

मिलके चलना बहुत ज़रूरी है

मिलके चलना बहुत ज़रूरी है

अब सँभलना बहुत ज़रूरी है

गुत्थियाँ हो गईं जटिल कितनी

हल निकलना बहुत ज़रूरी है

आग बरसा रहा है सूरज अब

दिन का ढलना बहुत ज़रूरी है

जड़ न हो जाएँ चाहतें अपनी

हिम पिघलना बहुत ज़रूरी है

हम निशाने पे आ गए उसके

रुख़ बदलना बहुत ज़रूरी है

है अँधेरा तो प्यार का दीपक

मन में जलना बहुत ज़रूरी है

उसपे मर मिटने का स्वभाव लिए बैठा हूँ

उसपे मर मिटने का स्वभाव लिए बैठा हूँ
उम्र भर के लिए भटकाव लिए बैठा हूँ
याद है, मुझको कहा था कभी अपनी धड़कन
आपकी सोच का दुहराव लिए बैठा हूँ
तुम मिले थे जहाँ इक बार मसीहा की तरह
फिर उसी मोड़ पे ठहराव लिए बैठा हूँ
लाख तूफ़ान हों, जाना तो है उस पार मुझे
लाख टूटी हुई इक नाव लिए बैठा हूँ
आपके फूल से हाथों से मिला था जो कभी
आज तक दिल पे वही घाव लिए बैठा हूँ

Sunday, January 18, 2009


मन मेरे को बावरे , करतें हैं बेचैन !

मदिरा के प्याले भरे मीत तुम्हारे नैन !

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तेरे नैनों की तरह , मिली न कहीं शराब !

हमने इसी तलाश में जीवन किया खराब !
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मादक नयनो से तेरे चख ली थी एक बार
उम्र हुई पर आज तक उतरा नहीं खुमार !

Sunday, January 4, 2009

Saturday, January 3, 2009

तुम्हे कसम है ......

तुम्हे कसम है मेरी जाँ.... उदास मत होना !!!!!!
मै तारे तोड़ के लाऊंगा तुम्हारी खातिर ... ये कायनात सजाऊंगा तुम्हारी खातिर .....
मै तुमसे दूर हूँ ये वक्त की मजबूरी है.... वरना, दिल से हमारे बीच कहाँ दूरी है .....
जो बुझ सके मेरे बिन ऐसी प्यास मत होना !! तुम्हे कसम है मेरी जाँ.... उदास मत होना !!!!!!
मै जानता हूँ मेरी उम्र मेरे साथ नहीं ... ब-खुदा उम्र के बढ़ने में मेरा हाथ नहीं
मै चाहता हूँ हमेशा तुम्हारे साथ रहूँ ... हरेक सुख, हरेक दुःख तुम्हारे साथ सहूँ .....
जो डगमगाने लगे ...ऐसी प्यास मत होना !! तुम्हे कसम है मेरी जाँ.... उदास मत होना !!!!!!
तुम्हारे चेहरे पे मुस्कान अच्छी लगती है ...प्यार की छोटी सी पहचान अच्छी लगती है ......
मुझे तो सबसे मेरी जान ! अच्छी लगती है ....
चहकती भीड़ में एकांतवास मत होना !! तुम्हे कसम है मेरी जाँ.... उदास मत होना !!!!!!
सुहानी शाम की उन मदभरी बातों की कसम ... जो तुमने चूम लिए थे उन्हीं हाथों की कसम .....
जो हमने साथ गुजारीं उन्हीं रातों की कसम .....
निराश लोगों के भी आस-पास मत होना !! तुम्हे कसम है मेरी जाँ.... उदास मत होना !!!!!!
जो मैंने तुमको लिखे ख़त , वो दुबारा पढ़ना .... खुली आँखों में नए ख्वाब प्यार के गढ़ना .....
वफ़ा के मोड़ की कुछ और ..सीढियां चढ़ना .....
अधूरी चाहतों का कारावास ..मत होना !! तुम्हे कसम है मेरी जाँ.... उदास मत होना !!!!!!
भाग्य का देवता भी हमसे रूठ जाए तो क्या ! तुम्हारे सब्र का हर बाँध टूट जाए तो क्या !
किसी भी हाल में होशो-हवास मत खोना !! तुम्हे कसम है मेरी जाँ.... उदास मत होना !!!!!!
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कुछ दोहे

नव गति , नव लय , रूप नव , पावो नव उत्कर्ष !
पूरण हो हर कामना , शुभ शुभ हो नव- वर्ष ! !
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आँखों में जब से घुला , यादों का मकरंद !
कोहरे में उड़ती मिले, बस- तेरी ही गंध !!
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पाला , शीत, कुहास का कोई नही प्रभाव !
बूढी आँखों को खले, बेटा , तिरा अभाव !!
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उन पर भारी बीतती शरद ऋतू की रात !
जिनके सर पर छत नही , हैं अध् -नंगे गात !
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Sunday, December 28, 2008

शुभ हो वर्ष- 2009


पूरे हो नव-वर्ष में
सभी आस- विश्वास
पल- भर भी मन आपका
रह ना पाए निराश !
हर पल क्षण नव- वर्ष का
आज तुम्हे उपहार
मन करता है - वार दूँ
तुम पर बरस हजार !!